अर्धनारीश्वर शिव

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1885

अर्धनारीश्वर शिव

सृष्टि के प्रारम्भ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गयी मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, तब ब्रह्माजी को बहुत दुःख हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई—‘ब्रह्मन् ! अब मैथुनी सृष्टि करो।’

आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में सफल नहीं हो सके। तब ब्रह्माजी ने सोचा कि परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती। अतः वे उन्हें प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगे। बहुत दिनों तक ब्रह्माजी अपने हृदयमें प्रेमपूर्वक महेश्वर शिव का ध्यान करते रहे। उनके तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान् उमा –महेश्वर नमे उन्हें अर्धनारीश्वर-रूप में दर्शन दिया। देवादिदेव भगवान् शिव के दिव्य स्वरूप को देखकर ब्रह्माजी अभिभूत हो उठे और उन्होंने दण्डकी भाँति भूमि पर लेटकर उस अलौकिक विग्रह को प्रणाम किया।

महेश्वर शिवने कहा—‘पुत्र ब्रह्मा ! मुझे तुम्हारा मनोरथ ज्ञात हो गया है। तुमने प्रजाओं की वृद्धि के लिए जो कठिन तप किया है; उससे मैं परम प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा।’ ऐसा कहकर शिवजी ने अपने शरीर के आधे भाग से उमादेवी को अलग कर दिया। तदनन्तर परमेश्वर शिव के अर्धांग से अलग हुई उन पराशक्ति को साष्टांग प्रणाम करके ब्रह्माजी इस प्रकार कहने लगे—

‘शिवे ! सृष्टि के प्रारम्भ में आपके पति देवाधिदेव ने शम्भुने मेरी रचना की थी। भगवति ! उन्हीं के आदेश से मैने देवता आदि समस्त प्रजाओं का मानसिक सृष्टि की। परंतु अनेक प्रयासों के बाद भी उनकी वृद्धि करने में मैं असफल रहा हूँ। अतः अब स्त्री-पुरुष के समागम से मैं प्रजाको उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूँ, किंतु अभीतक नारी-कुलका प्राकट्य नहीं हुआ है और नारी-कुलकी सृष्टि करना मेरी शक्ति से बाहर है। देवि ! आप सम्पूर्ण सृष्टि शक्तियों की उद्गमस्थली हैं। इसलिये हे मातेश्वरी, आप मुझे नारी-कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें। मैं आपसे एक और विनती करता हूँ कि चराचर जगत् की वृद्धि के लिये आप मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेने की कृपा करें।’

ब्रह्मा की प्रार्थना सुनकर शिवाने ‘तथास्तु’—ऐसा ही होगा—कहा और ब्रह्माको उन्होंने नारी कुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान की। इसके लिए उन्होंने अपनी भौहों के मध्यभाग से अपने ही समान कान्तमती एक शक्ति प्रकट की। उसे देखकर देवदेवेश्वर शिवने हँसते हुए कहा—‘देवि ! ब्रह्माने तपस्या द्वारा तुम्हारी आराधना की है। अब तुम उनपर प्रसन्न हो जाओ और उनका मनोरथ पूर्ण करो।’ परमेश्वर शिवकी इस आज्ञा को शिरोधार्य करके वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री हो गयी। इस प्रकार ब्रह्माजी को अनुपम शक्ति देकर देवी शिवा महादेवजी के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। फिर महादेवजी भी अन्तर्धान हो गये तभी से इस लोक में मैथुनी सृष्टि चल पड़ी। सफल मनोरथ होकर ब्रह्माजी भी परमेश्वर शिव का स्मरण करते हुए निर्विघ्नरूपसे सृष्टि-विस्तार करने लगे।

इस प्रकार शिव और शक्ति एक-दूसरे से अभिन्न तथा सृष्टि के आदिकारण हैं। जैसे पुष्प में गन्ध, चन्द्रमें चन्द्रिका, सूर्य में प्रभा नित्य और स्वभाव-सिद्ध है, उसी प्रकार शिवमें शक्ति भी स्वभाव-सिद्ध है। शिव में इकार ही शक्ति है। शिव कूटस्थ तत्त्व है और शक्ति परिणामी तत्त्व। शिव अजन्मा आत्मा है और शक्ति जगत् में नाम-रूप के द्वारा व्यक्त सत्ता। यही अर्धनारीश्वर शिवका रहस्य है।

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