अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥ ४.६ ॥

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श्रीमद्‌ भगवद्‌गीता यथारूप 4.6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥ ४.६ ॥
Translation

यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |
Purport

भगवान् ने अपने जन्म की विलक्षणता बतलाई है | यद्यपि वे सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट हो सकते हैं, किन्तु उन्हें विगत अनेकानेक “जन्मों” की पूर्ण स्मृति बनी रहती है, जबकि सामान्य पुरुष को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती | यदि कोई पूछे कि एक दिन पूर्व इसी समय तुम क्या कर रहे थे, तो सामान्य व्यक्ति के लिए इसका तत्काल उत्तर दे पाना कठिन होगा | उसे उसको स्मरण करने के लिए अपनी बुद्धि को कुरेदना पड़ेगा कि वह कल इसी समय क्या कर रहा था | फिर भी लोग प्रायः अपने को ईश्र्वर या कृष्ण घोषित करते रहते हैं | मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए | अब भगवान् दुबारा अपनी प्रकृति या स्वरूप की व्याख्या करते हैं | प्रकृति का अर्थ स्वभाव तथा स्वरूप दोनों है | भगवान् कहते हैं कि वे अपने ही शरीर में प्रकट होते हैं | वे सामान्य जीव की भाँति शरीर-परिवर्तन नहीं करते | इस जन्म में बद्धजीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है, किन्तु अगले जन्म में दूसरा शरीर रहता है | भौतिक जगत् में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं है, अपितु वह एक शरीर से दुसरे में देहान्तरण करता रहता है | किन्तु भगवान् ऐसा नहीं करते | जब भी वे प्रकट होते हैं तो अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे अपने उसी आद्य शरीर में प्रकट होते हैं | दूसरे शब्दों में, श्रीकृष्ण इस जगत् में अपने आदि शाश्र्वत स्वरूप में दो भुजाओं में बाँसुरी धारण किये अवतरित होते हैं | वे इस भौतिक जगत् से निष्कलुषित रह कर अपने शाश्र्वत शरीर सहित प्रकट होते हैं | यद्यपि वे अपने उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं और ब्रह्माण्ड के स्वामी होते हैं तो भी ऐसा लगता है कि वे सामान्य जीव की भाँति प्रकट हो रहे हैं | यद्यपि उनका शरीर भौतिक शरीर की भाँति क्षीण नहीं होता फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कृष्ण बालपन से कुमारावस्था तथा कुमारावस्था से तरुणावस्था प्राप्त करते हैं | किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वे कभी युवावस्था से आगे नहीं बढ़ते | कुरुक्षेत्र युद्ध के समय उनके अनेक पुत्र थे या दुसरे शब्दों में, वे भौतिक गणना के अनुसार काफी वृद्ध थे | फिर भी वे बीस-पच्चीस वर्ष के युवक जैसे लगते थे | हमें कृष्ण की वृद्धावस्था का कोई चित्र नहीं दिखता, क्योंकि वे कभी भी हमारे समान वृद्ध नहीं होते यद्यपि वे तीनों काल में – भूत, वर्तमान तथा भविष्यकाल में – सबसे वयोवृद्ध पुरुष हैं | न तो उनके शरीर और न ही बुद्धि कभी क्षीण होती या बदलती है | अतः यः स्पष्ट है कि इस जगत् में रहते हुए भी वे उसी अजन्मा सच्चिदा नन्द रूप वाले हैं, जिनके दिव्य शरीर तथा बुद्धि में कोई परिवर्तन नहीं होता | वस्तुतः उनका अविर्भाव और तिरोभाव सूर्य के उदय तथा अस्त के समान है जो हमारे सामने से घूमता हुआ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है | जब सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल रहता है तो हम सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो गया है और जब वह हमारे समक्ष होता है तो हम सोचते हैं कि वह क्षितिज में है | वस्तुतः सूर्य स्थिर है, किन्तु अपनी अपूर्ण तथा त्रुटिपूर्ण इन्द्रियों के कारण हम सूर्य को उदय और अस्त होते परिकल्पित करते हैं | और चूँकि भगवान् का प्राकट्य तथा तिरोधान सामान्य जीव से भिन्न हैं अतः स्पष्ट है कि वे शाश्र्वत हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण आनन्दस्वरूप हैं और इस भौतिक प्रकृति द्वारा कभी कलुषित नहीं होते | वेदों द्वारा भी पुष्टि की जाती है कि भगवान् अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में अवतरित होते रहते हैं, किन्तु तो भी वे शरीर-परिवर्तन नहीं करते | श्रीमद्भागवत में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भुजाओं तथा षड्ऐश्र्वर्यो से युक्त होकर प्रकट होते हैं | उनका आद्य शाश्र्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहैतुकी कृपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है जिससे वे भगवान् के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में | विश्र्वकोश के अनुसार माया या आत्म-माया शब्द भगवान् की अहैतुकी कृपा का सूचक है } भगवान् अपने समस्त पूर्व अविर्भाव-तिरोभावों से अवगत रहते हैं, किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नविन शरीर प्राप्त होता है वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है | वे समस्त जीवों के स्वामी हैं, क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्य जनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं | अतः भगवान् निरन्तर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता | अब यः प्रश्न किया जा सकता है कि इस संसार में भगवान् क्यों आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं? अगले श्लोक में इसकी व्याख्या की गई है |

Bhagavad Gita As It Is 4.6

ajo ’pi sann avyayātmā

bhūtānām īśvaro ’pi san

prakṛtiṁ svām adhiṣṭhāya

sambhavāmy ātma-māyayā
Translation

Although I am unborn and My transcendental body never deteriorates, and although I am the Lord of all living entities, I still appear in every millennium in My original transcendental form.
Purport

The Lord has spoken about the peculiarity of His birth: although He may appear like an ordinary person, He remembers everything of His many, many past “births,” whereas a common man cannot remember what he has done even a few hours before. If someone is asked what he did exactly at the same time one day earlier, it would be very difficult for a common man to answer immediately. He would surely have to dredge his memory to recall what he was doing exactly at the same time one day before. And yet, men often dare claim to be God, or Kṛṣṇa. One should not be misled by such meaningless claims. Then again, the Lord explains His prakṛti, or His form. Prakṛti means “nature,” as well as svarūpa, or “one’s own form.” The Lord says that He appears in His own body. He does not change His body, as the common living entity changes from one body to another. The conditioned soul may have one kind of body in the present birth, but he has a different body in the next birth. In the material world, the living entity has no fixed body but transmigrates from one body to another. The Lord, however, does not do so. Whenever He appears, He does so in the same original body, by His internal potency. In other words, Kṛṣṇa appears in this material world in His original eternal form, with two hands, holding a flute. He appears exactly in His eternal body, uncontaminated by this material world. Although He appears in the same transcendental body and is Lord of the universe, it still appears that He takes His birth like an ordinary living entity. And although His body does not deteriorate like a material body, it still appears that Lord Kṛṣṇa grows from childhood to boyhood and from boyhood to youth. But astonishingly enough He never ages beyond youth. At the time of the Battle of Kurukṣetra, He had many grandchildren at home; or, in other words, He had sufficiently aged by material calculations. Still He looked just like a young man twenty or twenty-five years old. We never see a picture of Kṛṣṇa in old age because He never grows old like us, although He is the oldest person in the whole creation – past, present and future. Neither His body nor His intelligence ever deteriorates or changes. Therefore, it is clear that in spite of His being in the material world, He is the same unborn, eternal form of bliss and knowledge, changeless in His transcendental body and intelligence. Factually, His appearance and disappearance are like the sun’s rising, moving before us and then disappearing from our eyesight. When the sun is out of sight, we think that the sun has set, and when the sun is before our eyes, we think that the sun is on the horizon. Actually, the sun is always in its fixed position, but owing to our defective, insufficient senses, we calculate the appearance and disappearance of the sun in the sky. And because Lord Kṛṣṇa’s appearance and disappearance are completely different from that of any ordinary, common living entity, it is evident that He is eternal, blissful knowledge by His internal potency – and He is never contaminated by material nature. The Vedas also confirm that the Supreme Personality of Godhead is unborn yet He still appears to take His birth in multimanifestations. The Vedic supplementary literatures also confirm that even though the Lord appears to be taking His birth, He is still without change of body. In the Bhāgavatam, He appears before His mother as Nārāyaṇa, with four hands and the decorations of the six kinds of full opulences. His appearance in His original eternal form is His causeless mercy, bestowed upon the living entities so that they can concentrate on the Supreme Lord as He is, and not on mental concoctions or imaginations, which the impersonalist wrongly thinks the Lord’s forms to be. The word māyā, or ātma-māyā, refers to the Lord’s causeless mercy, according to the Viśva-kośa dictionary. The Lord is conscious of all of His previous appearances and disappearances, but a common living entity forgets everything about his past body as soon as he gets another body. He is the Lord of all living entities because He performs wonderful and superhuman activities while He is on this earth. Therefore, the Lord is always the same Absolute Truth and is without differentiation between His form and self, or between His quality and body. A question may now be raised as to why the Lord appears and disappears in this world. This is explained in the next verse.
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