शहीदी दिवस भगत सिंह 28 सितंबर 1 9 07- 23 मार्च 1 9 31, लाहौर, पाकिस्तान

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जन्म: 28 सितंबर 1 9 07, बंगा, पाकिस्तान
मृत : 23 मार्च 1 9 31, लाहौर, पाकिस्तान

भगत सिंह 87 वीं मौत की सालगिरह पर ,भगत सिंह से जुड़े वो  सच, कभी सुने होंगे कहीं पढ़ें होंगे

जिंदगी अपने दम पर जी जाती है, दूसरों के कंधों पर तो सिर्फ जनाजे उठते हैं

भगत सिंह ने अंग्रेजों से लोहा लिया और असेंबली में बम फेंककर उन्हें सोती नींद से जगाने का काम किया था, असेंबली में बम फेंकने के बाद वे भागे नहीं और जिसके नतीजतन उन्हें फांसी की सजा हो गई. भगत सिंह, उनके साथ राजगुरु और सुखदेव को 23, 1931 को फांसी की सजा सुनाई गई थी.

 

भगत सिंह का पैतृक गांव खटकड़कलां है, इनकी पढ़ाई लाहौर के डीएवी हाई स्कूल में हुई। वे कई भाषाओं के धनी थे। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू के अलावा पंजाबी पर भी उनकी खास पकड़ थी। कालेज में भगत सिंह ने इंडियन नेशनल यूथ आर्गेनाइजेशन का गठन किया। अच्छे थियेटर आर्टिस्ट के साथ-साथ उनका शैक्षणिक रिकार्ड भी बढ़िया रहा। स्टेज पर उनका प्रदर्शन राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत की दुर्दशा दिखाता हुआ होता था। बाद में भगत सिंह ने अपनी थियेटर की कलाओं को भारतीयों के बीच देशभक्ति की भावनाएं जगाने में किया। भगत सिंह ने एक क्रांतिकारी लेखक का भी रोल अदा किया

 

भगत सिंह भारत के आजादी के आंदोलन के ऐसे सिपाही रहे हैं, जिनका जेहन या जुबान पर आते ही शरीर में जोश दौड़ जाता है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

हर वो शख्स जो जो विकास के लिए आवाज बुलंद कर रहा है उसे हरेक रूढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसमे अविश्वास जताना होगा और उसे चुनौती देनी होगी|भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को पंजाब प्रान्त के लायलपुर जिला जो अब पाकिस्तान में हैं के बंगा गाँव में हुआ था। यह बात चौकाने वाली है लेकिन ये सत्य हैं कि महज 12 साल की उम्र में बगैर किसी को बताए भगत सिंह जलियांवाला बाग चले गए थे और वहां की मिट्टी लेकर घर लौटे थे। 16 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को लिखे पत्र में साफ कह दिया था कि उनका जीवन देश सेवा को समर्पित है। भगत सिंह के पिता किशन सिंह चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे।उनके पिता और चाचा करतार सिंह सराभा और हरदयाल की गदर पार्टी के मेंबर थे। खुद भगत सिंह भी करतार सिंह सराभा को अपना आदर्श मानते थे। जानकारों के मुताबिक भगत सिंह के जीवन में पहला निर्णायक मोड़ 1919 में आया जब उनकी उम्र करीब 12 साल थी।

 

प्यार हमेशा आदमी के चरित्र को ऊपर उठाता है, यह कभी उसे कम नहीं करता है. प्यार दो प्यार लो.’

आठ वर्ष की खेलने की उम्र में जब बच्चों को खिलौनों का शौक होता है, भगत सिंह अपने पिता से पूछते थे कि अंग्रेजों को भगाने के लिए क्यों न खेतों में पिस्तौले उगा ली जाएं। पिस्तौलों की जो फसल उगेगी उससे अंग्रेजों को आसानी से भारत से भगाया जा सकेगा। उस दौर में पंजाब में अराजकता का माहौल था। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग की घटना हुई तो उस समय भगत सिंह मात्र 12 वर्ष के थे। 10 मिनट की गोलीबारी में 379 लोगों की मौत हुई और 2000 के करीब घायल हुए। हालांकि कुछ लोगों ने मृतकों की संख्या 1000 से अधिक बताई। वे महात्मा गांधी का सम्मान तो बहुत करते थे लेकिन उनकी अहिंसा वाली पद्धति से बहुत निराश थे।

 

 

अगर बहरों को अपनी बात सुनानी है तो आवाज़ को जोरदार होना होगा. जब हमने बम फेंका तो हमारा उद्देश्य किसी को मारना नहीं था. हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था. अंग्रेजों को भारत छोड़ना और उसे आजाद करना चाहिए|शहीद भगत सिंह का फिरोजपुर से गहरा रिश्ता था। यह ठिकाना क्रांतिकारी डॉ. गया प्रसाद ने किराए पर ले रखा था। इसके नीचे केमिस्ट की दुकान थी और ऊपर क्रांतिकारियों का ठिकाना। यहां भगत सिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद के अलावा अन्य क्रांतिकारियों का भी आना जाना था। यह ठिकाना पार्टी की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। क्रांतिकारी पंजाब से दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और आगरा आने जाने के लिए फिरोजपुर में बने इस ठिकाने पर आकर अपनी पहचान बदलते थे, फिर ट्रेनों में यात्रा करते थे। बम बनाने का सामान जुटाने के लिए क्रांतिकारी डॉ. निगम को यहां पर केमिस्ट की दुकान खुलवाई थी। क्रांतिकारियों का गुप्त ठिकाना 10 अगस्त 1928 से लेकर 4 फरवरी 1929 तक रहा। लाहौर में 17 दिसंबर 1928 को सहायक सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस सांडरस व हेड कांस्टेबल चानन सिंह की हत्या कर दी थी, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद समेत कई क्रांतिकारी शामिल थे।

 

 

मैं एक इंसान हूं और जो कुछ भी इंसानियत को प्रभावित करती है उससे मेरा मतलब हैप्रेमी, पागल और कवि एक ही चीज से बने होते हैं1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए हो रहे प्रदर्शन पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। इस का बदला लेने के लिए 17 दिसंबर 1928 को करीब सवा चार बजे, एएसपी सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सिर में मारी। इसके बाद भगत सिंह ने 3-4 गोली दाग दीं। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया – “आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।” नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया।

 

लोगों को कुचलकर, वे विचारों का दम नहीं घोंट सकते वे मुझे कत्ल कर सकते हैं, मेरे विचारों को नहीं. वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं लेकिन मेरे जज्बे को नहीं

पहले जेल में ही भगत सिंह ने धर्म और ईश्वर के अस्तित्व को लेकर लंबा लेख लिखा। लेख लिखने की वजह भगत सिंह के साथ सेंट्रल जेल में ही बंद बाबा रणधीर सिंह थे, जो 1930 से लेकर 1931 तक भगत सिंह के साथ रहे। वे धार्मिक थे, धर्म और ईश्वर को लेकर भगत सिंह से लंबी चर्चा करते रहे। उन्होंने भगत सिंह को ईश्वर में विश्वास दिलाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वे उन्हें समझा नहीं सके। ईश्वर, नास्तिकता और धर्म को लेकर भगत सिंह का यह लेख 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। यह लेख भगत सिंह के संपूर्ण लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।

हमारे लिए समझौते का मतलब कभी आत्मसमर्पण नहीं होता. सिर्फ एक कदम आगे और कुछ आराम, बस इतना ही|इस बात का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता कि भगत सिंह की कोई प्रेमिका थी। कुछ इतिहासकार ये जरूर मानते हैं कि भगत सिंह के परिवार वालों ने 16 साल की उम्र में ही उनकी शादी तय करने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं इस बात से नाराज होकर भगत सिंह अपने घर से भागकर कानपुर चले गए थे। घर से जाते समय उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखकर कहा, “मेरी ज़िन्दगी बड़े मकसद यानी आज़ादी-ए-हिन्द के असूल के लिए समर्पित हो चुकी है। इसलिए मेरी ज़िन्दगी में आराम और दुनियावी ख्वाहिशों और आकर्षण नहीं हैं।” भगत सिंह ने अपने पत्र में घर छोड़ने के लिए अपने पिता से माफी मांगते हुए लिखा है, “उम्मीद है कि आप मुझे माफ फरमाएंगे।”

आम तौर पर लोग चीजें जैसी हैं उसी के अभ्यस्त हो जाते हैं. बदलाव के विचार से ही उनकी कंपकंपी छूटने लगती है. इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना से बदलने की दरकार है महान क्रांतिकारी भगत सिंह को अंग्रेजों ने 23 मार्च 1931 को लाहौर में फांसी दे दी थी। वह देश की आजादी के लिए ब्रिटिश सरकार से लड़ रहे थे, लेकिन भारत की आजादी के 70 साल बाद भी सरकार उन्हें दस्तावेजों में शहीद नहीं मानती। अलबत्ता जनता उन्हें शहीद-ए-आजम मानती है। अप्रैल 2013 में केंद्रीय गृह मंत्रालय में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लेकर एक आरटीआई डाली गई, जिसमें पूछा कि भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को शहीद का दर्जा कब दिया गया। यदि नहीं तो उस पर क्या काम चल रहा है? इस पर नौ मई को गृह मंत्रालय का हैरान करने वाला जवाब आया। इसमें कहा गया कि इस संबंध में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। तब से शहीद-ए-आजम के वंशज (प्रपौत्र) यादवेंद्र सिंह संधू सरकार के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं।

 

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