“काम” और “प्रेम”

“काम” और “प्रेम”

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समाज के निर्धारक भ्रमों में से एक है “काम” को “प्रेम” के समान समझना ।

वे लोग जो शारीरक रूप से एक दूसरे से आकर्षित रहते हैं, वे सोचते हैं कि यही “प्रेम” है । परन्तु प्रायः उनका यह आकर्षण “काम” से बढ़कर कुछ नहीं होता है और यह तब स्पष्ट होता है जब अधिक मेल-जोल के बाद पहले जैसा प्रबल आकर्षण नहीं रह जाता, उनको रसहीन अनुभूति होती है या कभी-कभी आपस में असामंजस्य उभरने से चिढ या क्रोध आने लगता है ।

वैसे तो “काम” और “प्रेम” को कई विभिन्न ढंग से समझा जा सकता है, उनमे से एक है उसका हम पर प्रभाव पड़ना । हम सभी का एक नीच पहलु होता है – वह जो हमें स्वार्थी, अदूरदर्शी और शोषक बनने के लिए प्रेरित करता है।  और एक दूसरा पहलु होता है जो उच्चतर पक्ष दर्शाता है – इसमें हम निःस्वार्थ, दूरदर्शीता और संवेदनशीलता होते हैं । “काम” उस नीच-पहलु का एक भाग है और हमारी उन्ही भावनाओं को बाहर लाता है । यह हमें दूसरों को नियंत्रित और अपने सुख-भोग के लिए उन पर हावी करवाता है।  अंततः “काम” दूसरों को विषय-वस्तु के समान बनाता है और लोगों को उनके शरीर, आकार और घुमाव के आधार पर अपने आनंद के लिए समझता है ।

इसकी तुलना में, “प्रेम” उच्चतर पहलु का भाग है और वहीँ से स्फुरित होता है। जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो हम उस  व्यक्ति के आनंद के लिए सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार “प्रेम” हमें हमारे नीच पहलु से लड़ने और उसको नियंत्रित करने के लिए प्रेरित करता है।

हालाँकि काम के वश में हम दूसरे व्यक्ति के समक्ष मृदुल मुखौटा प्रस्तुत करते हैं परन्तु केवल ऊपरी भाव से और यह मन एवं शरीर तक सिमित रहता है । ऊपरी सतह के नीचे यह कोई साकारात्मक बदलाव नहीं लाता । वस्तुतः यह मृदुल मुखौटा इस लिए दर्शाया जाता है ताकि हमारी नीचता को बाद में अपने आनंद के लिए किसी पर हावी होने और उससे चालाकी से काम निकालने की छूट मिल सके । गीता के ज्ञान से हमें पता चलता है कि हमारा उच्चतर पहलु हमारी आध्यात्मिकता का सार, हमारी आत्मा से सम्बंधित है।  आत्मा क्योंकि भगवान् का अंश है इस लिए भगवान् के गुणों से परिपूर्ण है ।

यद्यपि यह अभी मन और शरीर से ढका हुआ है, जोकि नकारात्मक संस्कारों और अति-भोग में व्याप्त है । यही संस्कार हमारे नीच पहलु के उद्गम हैं और उन संस्कारों में प्रधान “काम” है । इसी कुंठा के कारण “काम” हमें अधोगति के अस्थिर फिसलन पर धकेल देता है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भगवद-गीता (३.३९) हमें सचेत करती है कि “काम” ऐसा शत्रु है हो हमें भ्रमित और भ्रष्ट करता है ।

मष्तिष्क के अनुसंधान में भी यही पाया गया है कि “काम” और “प्रेम” में भिन्नता है । एम.आर.आई  स्कैन में मष्तिष्क के वे भाग जो कार या मोबाइल फोन पाने की इच्छा के समय जैसे नियंत्रण और स्वामित्व के भावावेश को प्रकाशित करते है वैसा ही प्रभाव “काम” भावना के समय भी उजागर करते हैं । इसके विपरीत जब प्रेमभाव प्रदर्शित होता है तो मष्तिष्क के वे भाग प्रकाशित होते हैं जो देखभाल और आपसी मेलजोल वाले मनोभाव के समय दीखते हैं ।

गीता के ज्ञान से हमें पता चलता है कि आत्मा से शुद्ध प्रेम उमड़ता है और उसकी प्रकृति है, परमात्मा भगवान श्री कृष्ण और उनसे प्रेम करने वालों से प्रेम करना । हम भक्तिमय सेवा के अभ्यास द्वारा जितना इस प्रेम को प्रकट करने का प्रयत्न करेंगे उतना दूसरों को अपने आनंद के लिए उपयोग में लाने वाले कामेक्षा और आत्मा को आवृत किया हुआ काम कम होता जाएगा । जैसे जैसे हम कृष्ण को प्रेम करना सीखेंगे, वैसे वैसे उनके स्मरण में हमें आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति होने लगेगी।  ऐसी अनुभूति जो हमें दूसरों को अपने आनंद एवं तुष्टि के लिए उनपर प्रभुत्व या अधिकार जमाने से मुक्त करेगी ।

इसलिए भगवान कृष्ण से प्रेममय सम्बन्ध के संघर्ष में हमारे संसारी सम्बन्धों के बीच भी “काम” “प्रेम” में परिवर्तित हो जायेगा और सांसारिक सम्बन्ध भी दृढ, स्थिर, सकारत्मक और संतोषप्रद हो जायेंगे ।

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